पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३११

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तृतीय सग २५५ रसना हिली राम की, निकली- आशीर्वादमयी वाणी "तपस्विनी भव,चिर सौभाग्यवती भव त्वम् भव कल्याणी, सजल नयन तब उठी ऊम्मिला ऑसू पोछे सीता ने, धीरज दिया ने, करुणामयी राम-परिणीता ने, सुधृति गृहीता हुई ऊम्मिला, शान्त हुई, प्रकृतिस्थ हुई, हृदय हुमा उपरमित, और सब चित्त-वृत्ति विरतिस्थ हुई । २५६ "देवि, ऊम्मिले, कत्ता कितना है स्वतत्र निज कृतियो मे,- है परतन्त्र, व्यक्ति कितना निज- कर्मो की आवृतियो मे,- किस सीमा तक स्व-परिस्थिति से का पुरुष नियन्त्रित है किस सीमा तक वह नैसर्गिक नियमो से अनुतन्त्रित है,- किस सीमा तक कर्मी करता कर्मों का दायित्व-बहन- है ये प्रश्न निगूढ, ऊम्मिले।" बोले यो श्री राम वचन । २९७