पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३१५

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तृतीय सर्ग ? ! २६३ अणु-अणु से, कण-कण से क्षण-क्षण यज्ञ-भाव ये उमड प्राण-दान, आत्मार्पण के ये मेघ घनेरे धुमड रहे, लघुता कहाँ ? स्वार्थपरता वह- कहाँ कहाँ सकुचित व्यथा? सचय कहाँ ? ग्रहण कैसा ? जब- अपरिग्रह की यहाँ कथा इस आहुतिमय, आत्मदान मय, विमल यज्ञ-पूरित जग मे,- कैसे बैठ रहे हम, अपना बिना दिए कुछ, इस मग मे ? २६४ यह वन-गमन प्रथम आहुति है मानवता चरणो मे, यह तो छोटा सा अथ जन-सेवा के उपकरणो मे, जो कुछ लिया अभी तक उसका यह कृतज्ञता-ज्ञापन है, आगे की सेवाओ का यह प्रथम चरण-सस्थापन है, लक्ष्मण भी जाएँगे वन, है- यही व्यथा अन्तरतर मे, मेरी शक्ति नहीं कि रख सकूँ, मै लक्ष्मण को इस घर मे ।"