पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिला "आर्य, सिधारो अपने सँग ले जीजी को, ले इन को भी, मैं कभी न बन जाने देती एकाकी इक छिन को भी, मेरी जीजी है रघुकुल की, श्री. विभूति, लज्जा, करुणा, आर्यों की वे है धृति, मेधा, क्षमा, कीर्ति, सेवा अरुणा, इम प्रमून को लिए, अकेले जाने देती में न कभी, हठ करनी, चाहे फिर होते क्षुब्ध, कुपित गुरु देव सभी। आर्य, त्वदीय छत्र-छाया मे रच मात्र भी भीति नही, मगन ही मगल है, मेरे- हिय म शुद्ध प्रतीति यही, सीता-रमण राम के सँग-सँग दाहक भव-भय-भीति कहाँ ? द्वन्द्व - विमुक्ति वहाँ, दृढता स्थिर, ममता, निर्भय-नीति वहाँ, आगका, निर्बलता, प्राकुलता नही, भीति-भावना आ सकती है के पाम कही? शका, कभी आप ३०२ ३