पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३१७

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तृतीय सर्ग २६७ "आप सिधारे, कोसल जन-पद को अनाथ करते जाएँ, अटवी को, अटवी के जन-गण- को, सनाथ करते जाएँ, यह अज्ञान-भार भूमण्डल- का, इसको हरते जाएँ, अलख जगाते, लगन लगाते, दीप शिखा धरते जाएं, लिखने जाएँ इतिहासो पृष्ठो पर यह प्रगति-कथा, हरते जाएँ मानवता की यह जडतामय अगति - व्यथा । २६८ और क्या कहूँ? आर्य, जानते- है अन्तर का कोलाहल, छिपी आप से नही, देव, यह- चित्त-वृत्ति मम इधर-उधर में झूल रही हूँ, अस्थिरता के झूले उडी जा रही हूँ तिनके सी पड कर मोह-बगूले म, पर, हे आर्य, आत्म आहुति की यह घटिका यदि आई है, तो मै बाधा नही बनूँगी, श्री रघुवीर दुहाई दोलाचल, 1" ३०३