पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३२२

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ऊम्मिला कितना अनुभव, २७६ मों, कितना यह आत्मनिरीक्षण, जीवन का तव मानस-मडल में कितना एकत्रित है लय-सभव, तुम ने अपनी इन आँखो से क्या-क्या नही देख डाला ? देखे कितने पट-परिवर्तन, देखी स्थितियाँ विकराला, जीवन मे मौलिकता है, या- है केवल' चर्वित-चर्वण ? तुम ही जानो हो कैसा है- माता, यह घटनाकर्षण । २७७ "माँ, तुम चरम तपस्या-रूपा, परम भागवत भक्तिमयी, आत्मसमर्पण की तुम प्रतिमा, वत्सलता अनुरक्तिमयी जगद्धात्री तुम करुणामयि, सृष्टि-पालिका अविचल हो, समन्यवरूपा, दुख-सुख में तुम अविकल हो, जननि, तुम्हारी मधुर गोद मे सुख-सपना दिन रैन रहे, तितनी गहरी-गहरी बाते तव अनबोले नैन कहे । 1 समतामयी, 5 ३०८