पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३२७

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तृतीय सर्ग २८६ जननि, तुम्हारी मधुर लोरियाँ जीवन-गायन गानी कितनी करुणा, वत्सलता यह कितनी सरसाती है, यह अभिशाप जगत सृजनन का शुभ प्रसाद तम ने माना, पूर्ण आत्म-उत्सर्ग भाव को ही तुम न सब कुछ जाना, जीवन के उत्क्रान्ति काल की मॉ, तुम हो अति मौन व्यथा, शत-शत शताब्दियो क पट पर लिखी तुम्हारी अमिट कथा । २८७ तुम से अधिक व्यथा तत्त्वो का और कौन है ज्ञाता, मॉ ? तुम हो करुण स्वरूपा, तुम हो मौन मॉ, तुम हो महद् ब्रह्ममयि, जननी, तुम हो ईश भक्ति-रूपा, तुम जग की आधारभूत हो, तुम हो आदि-शक्ति तुम हो जीवन मरुस्थली की कुसुमित लतिका रस-भरिता, तुम जीवन उछालती-सी, मॉ, अवतरिता सरिता त्वरिता । वेदना-लाता, रूपा,