पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३२९

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तृतीय सर्ग छोडा, मुख मोडा, २६० लोग कहेगे त्याग राम का,- शासन-सिहासन लोग कहेंगे क्या निस्पृहता राजभोग से पर, यह कितने जानेगे, मॉ, कि है त्याग की परिसीमा,- जहाँ, राम के त्यागभाव की गति भी नहीं पहुँचती, माँ, बहू अम्मिला का मुख-मण्डल और तुम्हारे, जननि, चरण, रामचन्द्र के त्याग-भाव को लज्जित करते है क्षण-क्षण । २६१ राम नही, न यह सीता भी, लखन न, नही तात दशरथ,- परम पूजनीया कौशल्या मॉ भी नही, न बन्धु भरत,- कोई नहीं पहुँच पाते है जहाँ तुम्हारा आसन है, वहाँ-जहाँ ऊम्मिला बहू के, करुण-भाव का शासन है यह ज्वलन्त बलिदान तुम्हारा यह लोकोत्तर त्याग, जननि, और कहाँ मिल सकता है यह ध्रुव विराग-अनुराग, जननि । ,