पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३

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प्रथम सर्ग ३० धन्वाधारी यदपि, फिर भी है न ये क्रूर दुष्ट, धारे है ये निज हृदय में पूर्ण निर्लोभ तुष्ट, सौम्या निष्ठा इस दृढ सुहृद्देश से यो बही है, पाषाणो को, त्वरित सरणी, तोड के ज्यो गई है। व्यापारी है, कृषक वर है, वैश्य ये द्रव्य वाले, लक्ष्मीसेवी, सकल जग की वाटिका को सँभाले , ले-ले आते शकट भर के दूर से वस्तु सारी, ज्यो फूलो से मधु, भ्रमर है खीचते, हो सुखारी। 1 1 ये वे है जो सतत रत है-पूज्य सेवी बने है, वृक्षो, पुष्पो सदृश नित सेवा-रसो भे सने ह, देते है ये सकल जग को गढ शिक्षा मुरम्य, 'सेवा धर्म परम गहनो योगिनामप्यगम्य' । ३३ उत्फुल्ला है , मृदुरस सनी है गृह-स्वामिनी ये आर्या भू का अमल धन है मञ्जु-सी भामिनी ये उत्सगो मे सतत अपने देश की कीति-लाज- बैठाए ये नित कर रही है घरो मे स्वराज । ३४ सोन्दर्यो के अमिय-बन के आम्र की कोकिलाएँ, कर्तव्यो के कटिन स्वर में तान को है मिलाए, बीरो के हृत्सर विमल की है निराली तरगे, वेदो के सुस्वर क्वणित की है अनूठी मृदगे ।