पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३३

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तृतीय सर्ग २९८ 'किसने भेद बनाए है ये जग मे गायन-रोदन के ? दोनो ही तो हिय मन्थन के- फल है, व्यथा-प्रणोदन के, गायन सगुण, रुदन निर्गुण है , दोनो ही मे पीडा है, दोनो ही है करुणा-रजित , दोनो रस-क्रीडा है, गायन मे स्वर-गुण-बन्धन है , क्रन्दन मे है निर्गुण मुक्ति हिय-विलाप ही से अभिभूता होती है गायन की युक्ति । २६६ सदा, तान गीत की बॅधी हुई है , गायन है स्वर-दामोदर, क्रन्दन-बन्धन हीन सदा है , बहता मुक्त रुदन-निर्भर , स्वर-लहरो की सीमानो से , रोदन-सर निर्मुक्त गायन की वह प्रकृत अवस्था नि सीमा-सयुक्त सदा राम ललन मन हरण, आज है स्वागत इस क्रन्दन-क्षण स्वागत है रोदन का,--गायन के इस जनक विलक्षण का । 2 का 3