पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३५

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तृतीय सर्ग अनुभूत करे,- लेगी। ३०२ जो क्रन्दन मे गायन, गायन मे क्रन्दन सत्-विद्, तत् -विद्, चिदानद-विद् वे ही है अवधूत खरे , तुम निर्जन में जनपद देखो भोग त्याग मे तुम देखो, सर्वेश्वर समझो, नि साधन- वन-वासी कर अपने को, हम मॉएँ भी इस क्रन्दन मे गायन-अनुभव कर नव विरहानल को, चन्दन , सम , हम निज हिय मे भर लेगी । ३०३ मम मन मे शून्यता, रिक्तता , एकाकिनी व्यथा मूनी-सूनी सी अवध की ठकुराई , निरवलम्ब प्राधार-शून्यता, जीवन चौथेपन मे स्वावलम्ब की क्या ही यह लकुटी पाई। तुम ने खूब परीक्षा लेने- की ठानी है, रामललन , नई वयस मे वन जाने की निकली है यह नई चलन । छाई, लगती है, राम, देखो, आई, ३२१