पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३६

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अम्मिला चरम, 3 . 3 ३०४ योगायोग' हुआ यह कैसा ? इस' मे है कल्याण सश्वत हो इसी व्याज से, मानवता का त्राण परम वुद्धिग्राहय है यह सब, लालन पर हिय मे है मूक व्यथा , यह वियोग पैदा करता है, मन मे एक अचूक व्यथा सीता-राम-लखन विन चौदह- वरम?---तडप जाता है जिय लाख-लाख समझाने पर भी टूक-टूक होता है हिय । ३०५ इसका क्या उपाय है माता का यह हृदय विचित्र बडा , सदा धडकता ही रहता है कर लो चाहे खूब कडा तुम्हे नहीं रोकूँगी, जाने- दंगी मैं निर्जन में, गम, कहो तो, माता हूँ या निस्ट राक्षनी, इस क्षण में? त् माँ के हृदय, विरोधो-- का है तू आगार, अरे, रे, पमीजते पत्थर , धिक-धिक , तेरा निष्ठुर प्यार अरे । ? 7 ३२२