पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३७

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तृतीय सर्ग तुम, बनेगा, वत्स, 2 ३०६ प्यार बडा, सत्कार बडा, यह लाड, दुलार बड़ा कर के,- तुम्हे विपिन मे भेज रही हू मै हिय से झगडा कर के , वत्स, सिधारो मे ह्यि से यहाँ अकैले लड़ लूंगी, जैसे-तैसे में निप्ठुर इम- हिय से यहाँ भगड लँगी , ह्यि-निम्पन्दर नही तुम्हाग पद-बन्धन विनिर्मुक्त, निर्वन्ध सिधारो वन तम , हे दशरथ नदन । ३०७ सुवन, तुम्हारी विकट प्रतीक्षा- में यौवन बीता ढलती हुई वयस म पाया तुम सम फल यह मन चीता, मोच रही थी, जीवन विष मय था, पर अव तो मधु मय है, क्षण भर को भूली कि--यहा तो एकरूप-मय वि-मय है, खूब करा दी स्मृनि नुम ने हे प्रिय, इम निपट मत्यना की, म मोहावृत्त हो भली थी सुध इस नित्य नथ्यना की । रीता,