पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३८

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ऊम्मिला ३०८ सीमा सदा हुआ करती है, लालन कष्ट सहन की भी, जीवन में बाधी जाती है सोमा दु ख-बहन की भी, पर यह होता वहा जहा हो दुख, सुख ये न्यारे न्यारे, सीमा कैसी वहा जहा दुख, पर सुख, सुख पर दुख वारे? इसीलिए अभिशाप रूप यह जगपति ने वरदान दिया, अथवा आर्य धर्म सैद्धान्तिक- तत्वो का सम्मान किया । दुख मे दुख होता है, सुख मे- अनुभव होता है सतोष, इस मे मेरा दोष नही, मम- मातृ-हृदय का है यह दोष, आते देख तुम्हे सीता जब उत्फुल्लित हो जाती है, या ऊम्मिला, लखन के आगे जब मुकुलित हो जाती है, तब, हे वत्स, सुमित्रा का यह हिय हो जाता है मुदमान, और तुम्हारे बिना दिवस-क्षण बन जाते है कल्प समान ३२४