पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३३९

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तृतीय सर्ग ३१० मा का मन ही ऐसा है, मै- कहो क्या करू ? क्या न करू ? कैसे हिय को समझाऊ मे ? कैसे मन में धैर्य धरू ? पर अतिरिक्त धैर्य के कोई मार्ग न शेष रहा, हे राम, ज्वाला-प्लावन आज इधर को सहसा आन बहा है, राम, तन-मन भस्म हो रहा है यह, अगारे जीवन-पथ मे, पर, इस से क्या? नही करूगी अपना यह मस्तक नत मै । का, हँस हँस आज करूँगी स्वागत ज्याला का, अगारो का, हँस हँस भार उठाऊगी इन- विपदा के अम्बारो धर्म-मार्ग से च्युत न करूगी तुम को, हे अच्युत लालन, अवध उजाडो, विपिन बसाओ, कर्म-व्रत-प्रतिपालन , शकर तुम, प्रलयकर बन कर वन मे करो राम-लीला, वत्स, लिए अपने सँग जायो अनुज लखन, सीता शीला । करो ३२५