पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३४०

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अम्मिला ३१२ जीवन की थाली में कितनी यह वेदना भरी है, लाल, छलक-छलक पडती है, पथ मे- कैसे कोई रखे सँभाल ? वत्स, धूम्र की कुडलिया उठ- आती अन्तर-तर से, झर पडती है ऑखे जैसे सावन मेघा बरसे, सुनने वाला कौन रहेगा याँ विलाप के बैनो का ? यहा रहेगा कौन पोछने वाला का ? आसू नैनो रहे जीवन सूना, मन, कुछ ऐसा है लिखा भाग में कि यह कुछ ऐसा है योग कि मिलता- रहा दु ख नित दिन-दूना, इधर-उधर टक्कर खाता, यह-- मडाराता अकुलाता जन-पद मे भी सदा करेगा अनुभव भाव नियट निर्जन, सीय लाडिली, राम दुलारे, हे तुम मुझ निर्धन के धन, विजन सुखेन पधारो, मेरे प्यारे सीता, राम, लखन । ३२६