पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३४२

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ऊम्मिला सदा पटा है तुम से मेरा सौदा ऑखो-ऑखो मे, तुम हो एक ग्राहिका मेरी, सहस्रो-लाखो मे, व्याकरणज्ञा हो अनबोली भापा की, तुम कल्याणी, खूब समझती हो तुम छानी- छानी नयनो की वाणी, भाषा की, वाक्यो की, श्रुति की, शब्दो की गति जहाँ नही, सीते बेटी सहज पहुँचती है यह तव मति महा वही । हिय मे जहाँ हो रहा है यह हाहाकार प्रचड, बहू, जहाँ उठ रही है यह ज्वाला, चड, ज्वलन्त, अखड, बहू, उस थल तक जा-जा कर आती लौट-लौट शब्दावलिया, जैस झुलस-झुलस जाती हो खर निदाघ मे नव कलिया, नि शब्दता राज करती हो- जहाँ, वहाँ कैसी अभिव्यक्ति ? वहाँ पहुँच पाती है केवल सह-अनुभूतिमयी अनुरक्ति .। ३२८