पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३५३

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तृतीय सर्ग रक्षण, ३३८ "माँ, देखोगी दूध तुम्हारा नही लजाएगा लक्ष्मण, देकर अपने प्राण करेगा वह आदर्शो का जिस के बन्धु राम हो, जिसकी- पूज्य सुमित्रा महतारी, धिक् है वह, यदि प्राण-मोह मे पड, बन जाए अविचारी, एक-एक बूंट तुम्हारे- पय के, मैं ने अमृत पिया, कैसे विचलित कर सकती है मुझे मृत्यु की अनृत क्रिया ? ३३६ जननि, तुम्ही ने तो सिखलाया- है कि मरण ही जीवन है, लीलामय के प्रागण में तो प्राण-हरण ही जीवन है, कहा तुम्ही ने न था कि लो इन- मृत्यु-गीत की कडियो मे, बन्धन-भजन की घडियो मे, प्रात्मदान की लडियो मे, जीवन-स्वर, जीवन-क्षण, जीवन- मुक्ता, ये है टंके हुए, वैसे ही जैसे कि शून्य में सभी अक है अँके ?