पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३६३

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चतुर्थ सर्ग अक्षर से क्षर प्रकटा निर्गुण से सगुण हुआ है, वह एक अनेक वना है, वह विगुण, मुनिपुण हुआ है, अब मगुण, अगुण होने को-, यो अकुलाता है छिन-छिन, क्षर, अक्षर में मिलने को दिन बिता रहा है गिन-गिन, अपना पा जाने की, है यही एक आकुलता, खट-रवट निशि-दिन होती है, देखे यह पट कब खुलता पन ? तम्बूरे के रह रह कर कोई गायक, मन मे स्वर सीच रहा है, तारो को, छिन-छिन में खीच रहा है, म्वर-साम्य नहीं मिल पाता, ढीली खूटियाँ पडी है तार-तम्य बिखरा सा, दरकी तूंबी, लकडी है, स्वर-तान कहा से उठे स्वर-साधन रच नही सुस्वर वह नहीं निकलना, केवल वेदना यही है 1 ?