पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिल १७ जब अनिल सिसकती आती पूछने वात कलियो की, तब व्यथा सुना जाती है वह जग की सब गलियो की, तृण, पर्ण, प्रसून, विटय, दल, सुनते है व्यथा-कहानी, सुन कर वे ढरकाते ह अपने अन्तर का पानी अपनी स्वीकृति देते है, डुल-डुल कर मन्द करुणा ही करुणा रहती, है गृह, वन में, उपवन मे। , पवन में जीवन की सिमक भरी है तरु मे, गुल्मो मे, तृण में, ज्यो कसक भरी रहती है गहरे पीडामय व्रण में, प्रच्छन्न प्रेरणा बन के छिन-छिन मे उठ उठ आती तरु मे जीवन-रस बन के, वह पों कोपल बन-बन कर फूटी जीवन की सिसक रसीली, बन वल्लरिया, कलिका बन गई लजीली । मे लहराती, गई बेल,