पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३६७

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चतुर्थ सर्ग 1 पतझड में अरुझानी-सी, नव द्रुम-दल में उलझी-सी, वेदना नित्य जीवन की, आई सुलझी-सुलझी सी वल्कल के अन्तर-तर मे, रस-गति सभूत हुई रस-आरोहण के मिस-से वेदना प्रसूत हुई है जीवन की पैनी पैनी- नन्ही-नन्ही-सी सुइयों, चुभ गई सृष्टि के हिय मे, झर उठी बिथा की फुहियाँ । २० अटकी विकास-उत्कठा- कलियो के अस्फुट उर मे, ज्यो गमन-लालसा उलझे पिय नुपूर मे, फूले हिय से आसू भर रहे व्यथा कुछ अकथ कथा कहते है, आडोलित पर्ण लता के है चिर वियोग-दुख अकित द्रुम की पत्ती-पत्ती मे, है भरी व्यथा फूलो की की रत्ती-रत्ती मे 1 के झकृत कुसुमो के 2