पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६ केकावलियाँ सब नाची धन-गर्जन की ध्वनि सुन के डग मग पग थिरक उठी के, यि थिरक उठे सब उनके, ऑखो से खूब लुटाई आसू-लडिया चुन-चुन के, युग-युग से नॉच रहे है। है मोर बड़े ही धुन के, अकुलाए है दर्शन को वे सब उस नृत्य-निपुण के, जिस ने लघु जीवन दे कर, बाधे दृढ बध त्रिगुण के । ३० दिन रैन कहते गुटुर-कहानी, कठो छलकाते है वेदना जीवन के वाण लगे है, हो रही यहाँ मनमानी, कुछ भेद न खुल पाया है, है या सब बाते छानी, यह भेद भरम क्या समझे अज्ञानी पर, व्यथा प्रकट करती है यह गुटुर गुदुर मय वाणी । कबूतर अपनी व्यथा अनजानी, ? मूरख कपोत