पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७३

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चतुर्थ सर्ग सह-सह के, कहती छद्भ कहानी, मैना मै ना कह-कह के, यदि तू है 'ना' तब फिर क्यो- कहती 'मैं' ना रह-रह के ? पिय से विरहित हो 'मैं' के धक्के खाए क्यो खोया निज को 'मैं' की इस सरिता में बह-बह के ? कर 'मैं' के फन्दे में अलबेला पीतम खोया, बस उसी घडी से निशि-दिन यि रोया, मानस रोया । ३२ सन्ध्या के श्यामल क्षण मे चिर दीप-शिखा-सी जलती, जडता के काले तल मे जीवन की सिसक उछलती, सन्ध्या श्रा फैलाती है अँधियाले रंग का अचल, उस मे भर देता कोई गहरी वेदना अचचल, चल मन्द समीरण के मिस कँप उठते है सूने क्षण, अस्तित्व-व्यथा से कम्पित होते वसुधा के कण-कण $ । ३५६