पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७५

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चतुर्थ सर्ग सन्ध्या क्या प्राती मानो ढल जाता यौवन दिन का, काला सा पड जाता है चम-चम उजियाला छिन का, सन्ध्या बटोर लाती है दिन की स्मृति आह-भरी-सी, उजियाली-सी, गोरी-सी, सुख - सस्मृति - चाह - भरी - सी सन्ध्या के अनु-अनु छिन क इस गुंथे हुए धागे मे, है टॅकी सुसस्मृति-मणियाँ क्षण के काले तागे मे। 1 उजियाले को अँधियाला पा ढंक लेता है ऐसे, श्यामल अचल ढंकता है सुकुमार गौर मुख जैसे, झीने अँधियाले पर से उजियाली बिथा चमकती, ज्यो दर्शन-आतुर ऑखे चूंघट की ओट दमकती, गहरा होता जाता है छिन-छिन अँधियाला जग मे, ज्यो घिरती निपट निराशा चिर प्रेम-प्रतीक्षा-मग मे ।