पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७६

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ऊम्मिला डाकू ३७ इन । सूने-सूने , क्षण मन मे खुट-खुट होती है, आकाक्षा भु निरी अकेली भोली लुट-लुट रोती है, नित घनी सॉझ की बेला कोई आता है, बटमार निपट सूने सब कुछ लूटे जाता है, हिय-तल अकुलाता रहता सन्ध्या के प्रति पल-पल मे, अँधियाला बिम्बित होता लोचन के कम्पित जल में । ३८ धूमिल-सा होता जाता इस नभ का नीला अम्बर, आती है पहन-पहन ये दिग्वधुएँ श्याम दिगम्बर, दुख भरी निराशा-सी कुछ, कुछ भ्रान्त धान्त आशा-सी, मन-नभ मे छा जाती है कुछ क्लान्ति, मूक भाषा-सी, १ सन्ध्या के इस अचल मे, कम्पित-सी, अश्रु-सनी-सी, ना जाने किसने भर दी, यह इतनी व्यथा धनी-सी ?