पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७७

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चतुर्थ सर्ग ३8 सन्ध्या को थपकी दे के चुपके से गोद सुलाती, आती है करुण तमित्रा निज अचल-छोर डुलाती, "निशि के अँधियारे मे है सचित दुख की परछाई, मोर इस घनी कालिमा मे है चिर विप्रयोग की झॉई, जल भुन कर ज्योति-विरह से पड अँधेरा काला, पर कही न दीखा अब तक अंधियारे में उजियाला गया 1 ४० उडुगण चमके रह-रह कर नभ-मडल कॅप-कँप के, अथवा दुख-भरी निशा के दुख के सब छाले तपके, इस धीर पवन के मिस से यह पुज' उठा आहो का, अँधियारे के मिस आया यह दल निराश चाहो का, चुपके प्रोसो ढरका के रतियाँ रोई, नि शब्द, मौनमय क्षण मे अपनी सुधबुध सब खोई । के आँसू 1