पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिला ४१ जब पूर्व-निशा , यह परिणत- हो जाती अर्घ-निशा में, तब हृदय-वेदना आकुल मँडराती सकल दिशा मे, अवलम्ब ढूंढती फिरती है निरवलम्ब लघु प्राशा, अँधियारे मे मिलती है उसको नित निपट निराशा, अति श्रान्त, निशा पगली-सी, यह मार्ग-क्रमण करती है, चिर अभिसारिका बनी यह उद्भ्रान्त भ्रमण करती है ४२ भीजी है प्रोस-कणो से, यह अर्ध-रात्रि दुखियारी, चू-चू कर टपक रही है उसकी अँधियारी सारी, पीतम की मगन लगन रात्रि ने बिता दी घडिया, रो रोकर खूब भिगोई सब समय-श खला-कड़ियाँ, पर जिस ने दिन-छिन दे कर यह दिया रात को ताना, ढूंढे भी मिला न अब तक वह अलबेला मस्ताना । म