पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३७९

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चतुर्थ सर्ग की मस्ती, ना जाने कहाँ छिपा है? है कहाँ पिऊ की बस्ती? कण-कण क्षण-क्षण जन-मन में, सुनते है उसकी हस्ती, पर हाय, द्वैत-अवगुठन हा, अपनेपन जग गहरी ढाल हस्ती की मदिरा सस्ती, हॉ, इसीलिए तो राते- कर हारी, पर अब तक वह न मिला है, थक बैठी खोज बिचारी । चुका है ये, बुला-बुला जब कभी-कभी आती है निशि पहिन : चाँदनी साडी, तब और दूर हो जाता वह पीतम अलख खिलाडी, हाँ, इसीलिए उजियाली- रातो मे बिथा बढे ज्योत्स्ना मे, इसीलिए तो, यह दूना निशि ढूंढ रही है पिय को ममता की ज्योति जगा कर, पर, वह मिलता है उस क्षण जब ढूंढो स्वय ठगा कर । जहर चढे