पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३८१

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चतुर्थ सर्ग जब परिणत अपर निशा में यह मध्य निशा हो जाती, तब थकित यात्रिणी-सी वह झुक कर कुछ-कुछ सो जाती, यो ही सोती-सोती-सी वह सहसा लुट जाती है, उत्सुक ऊषा की नभ जुट-जुट आती है, ऊषा निहारने लगती निशि का अन्वेषण-सपना, वह भी विस्फारित नयना ढूंढती कलाधर अपना । ऊषा की उन आँखो मे है अचरज भी, वाञ्छा भी, उन मे चिर-जीवन भी है, नवजीवन की याञ्चा भी, जग-भग निहार कर जग को आश्चर्य भरा नैनो मे जग नायक के पाने का औत्सुक्य भरा बैनो मे, ऊषा जगनट-नागर को नित ढूंढ-ढूंढ कर हारी, उत्कठा लिए हिये मे, यो ही रह गई बिचारी । ३६७