पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३८२

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ऊम्मिला क्षण मे छलकी, उत्कठा ढलकी, ऊषा के मजुल कौतुकमय करुणा प्रिय-दर्शन की मानो नयनो से लाली सी फैल गई कुछ, उजियाली-सी छाई, ज्यो शुभ्र वस्त्र पर, हिय ने- प्रारक्त बरसाई, जग कुछ चिहुका, कुछ उझका, कुछ झिझका उनिद्रित-सा, कुछ लगा ढूंढने रह-रह, सालस सा, कुछ तन्द्रित सा । आता प्रभात कर मे ले, रवि-दीप-आरती थाली, मुखरित हो उठती सहसा, पत्ती डाली-डाली, करता आरती नियम से प्रतिदिन यह सुभग सबेरा, पर, उसे मिला न अभी तक इस जग का चित्र-चितेरा । यह व्यक्त सबेरा जिस दिन, अव्यक्त काल हो लेगा, उस दिन पिय को पाएगा, जब अपना पन खो देगा ।