पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३८३

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चतुर्थ मर्ग ५१ अष्टयाम तप करने रवि अशुमान नपधारी, है ढूंढ रहे कुछ, निशि-दिन यो बने नभचारी, है कुछ धुन इन्हें, बने जो- ऐसे : गगन बिहारी, विश्राम नाम को भी ये भूले है कल्मप हारी, है खोज इन्हें जिसकी वह है छिपा कही ऐसे स्थल, है जहाँ न गति गति की भी, है वह थल निभृत विविस्थल । ५२ प्रनि निमिप, मुहूर्त, प्रतिक्षण, प्रति घटिका, सरणी, ये सब मिल फेर रहे हैं उसकी मन्नाम-सुमरनी, आते-जाते ये निशि-दिन,- यह उजियारा, अंधियारा, यह आकर्षण, घन गर्जन, यह जलधारा, देश काल घटनाये, ये चलन कलन मय कृतियाँ,- नित प्रति सब ढूंढ रहे है विभु के रहस्य की सृतियाँ । प्रति पल, अपकर्षण,- ३६६