पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३८४

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ऊम्मिला क्षण-क्षण मे इसीलिए तो अन्वेषण-व्यथा भरी कण-कण मे इसीलिए यह आकर्षण-कथा भरी जड आकर्षण, आतुरता- दुलका-दुलका, बहता चेतन ह्यि यह कैंप कॅप के, नित क्वासि? क्वासि कहता है, परदे मे छुप के, निष्ठुर, क्यो देते हो यह पीडा ? मत विलग रहो इक छिन भी, आयो करते क्रीडा । ५४ आ जानो ठुमुक-ठुमुक के जल-थल मे, जड-चेतन मे, हो जाओ प्रकट सलोने, क्षण-क्षण मे, औं कण-कण मे, जग की वियोग की ज्वाला कुछ शान्त करो, श्रा जाओ, ब्रह्माण्ड निखिल को अब मत तुम और अधिक बिलखामो जब से ब्रह्माण्ड हुना है तुम से यह अलग अकेला, प्रत्येक बिन्दु मे तब भर गया दरद अलबेला। 1 ३७०