पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३९०

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ऊम्मिला बुहारती प्रिय-पथ रहती पक्ष्म सुसम्मार्जनियाँ, ऑखे बरसाती रहती छिन-छिन में जल की कणियाँ, पीतम आवे रिमझिम मे, आशा से झर-झर के, ढरकी रस की धाराएँ, नयनाजलियाँ भर-भर के, आते ही होगे प्रीतम, यह साध हिये में घर के, जी उठी शिथिल हिय-पाशा, वह कई बार मर-मर के । इस अलग-थलग सत्ता को, इस स्वार्थमयी रटना को, इस स्वकेन्द्रिता माया को, इस वैयक्तिक घटना को, उत्सर्ग-स्वरूप बनाया, करुणा-रस पूरित करके, समुद्र बनाया, यह लवण अश्रु-जल भर के है बड़ी ईश-अनुकम्पा, सकरुण हृदय-स्पन्दन छुट गई भावना मन की हिय कूप, 3 दृढ स्वार्थ मूल बन्धन ३७६