पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३९५

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चतुर्थ सर्ग 1 पीछे भूमडल और खमडल तूंवियाँ वनी ध्वनि-चलिता, नक्षत्रो की अगणित-सी खूटियाँ बनी प्रज्वलिता आकर्षण-अपकर्षण तारो का जाल बिछा है, चिर काल-दारु है, उस में- करुणा-सगीन खिचा वीणकार पीडा मरसाता है ध्वनि-विन्यासो के मिस से, नित करुणा बरमाता हे । ७६ ब्रह्माड-रूप वीणा की लघु वाणी प्रतिछाया है, हाँ, इसीलिए इस में भी कारुणिक मुरित-माया हैं, करुणा रुण-रुण कर बहती नारो की झकारो से, हिय आकुल हो उठता है कम्पित स्वर-सचारो से, वर की मरोर से लगती प्राणो को आकुल फाँसी, सस्मरण और कस दते सॉसत की वह स्वर-गॉमी ।