पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३९६

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कम्मिला ७७ प्राकाश-रूप बॉसुरिया,- शून्यता-रन्ध्र अगणित नित वायु-श्वास से निशि-दिन यह मनहर वेणु क्वणित है ; नित अलख अँगुलियाँ करती स्वर-गतियो का परिचालन, यो ही जग में होता है करुणा-व्रत का वेदना जगा देते है स्वर पैठ-पैठ अन्तर मे, भर देते है स्वर-पीडा जगती के अभ्यन्तर में प्रतिपालन , ७८ ये प्राण बज उठती है कम्पित-सी मुरली, सुर-लीला करती, उत्कठा जागृत करती, अन्तस्तल मे ध्वनि भरती , आप ही बरबस खिच जाते है ध्वनि सुन के, बन्धन ढीले पडते है सब लोक-लाज के गुण के , दे रहा दरद चुपके से, बह अलख बाँसुरी वाला, प्राणो को तडपाता वह पीर-पॉसुरी वाला ३८२