पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/३९७

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चतुर्थ सर्ग हिय हूक ७६ जब कूक भरी वशी यह जगा जाती है, तव सूने अन्तस्तल चिर-लगन लगा जाती है

रन्ध्रो से सप्ता स्वरो की उलझी-सी पीडा बहती, को अह-रह क्षण-क्षण सिहराती रहती स्वर-टीप मुरलिया की सुन हिय-टीस रसक उठती है, आमत्रित अभिलाषा की यह सिसक, कसक उठती है । वह रोम-रोम रह-रह के, स्वर बड़ी दूर से आते सूनेपन मे स्वर सग मिलन की स्मृतियाँ आ जाती है बह-बह के, आतुरता से भर जाते पल निमिष, सभी अहरह के, अन्तर में स्वर घुसते है कानो मे कुछ कह-कह के, ओ विश्व-दरद-दीवाने, ओ अलख-वेदना-दानी, क्यो फैली, तनिक बता दो, जल थल मे बिथा परानी ? ३८३