पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४०१

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चतुर्थ सर्ग ८७ वैयक्तिक व्यथा जगत की, जन गण की कसक कहानी, अति परिधि-गता करुणा यह, उत्कंठा छानी-छानी, यह कसक-सिसक अलबेली, यह मीड, मरोर पुरानी, यह टीस, अथोर घनेरी, हृदयान्दोलिका अयानी, ये विश्व-वेदना की जीवन-बिम्बित प्रतिछाया, ब्रह्माड-व्यथा ही ने यह आरक्त विन्दु छिटकाया । ८८ और आती-जाती रहती है पतझड़ की प्राकुल घडियों, झरती-उगती रहती है पत्तियों पखडिया, निशि-दिन यह पवन निगोडी सन-सन करती बहती है, छिन-छिन टल्ला के अपनी कहती रहती है, यो उमड रही है करुणा ऊम्मिला बहू के आँगन, हिय में निदाघ रहता है, नयनो में बसता सावन 1 ३८७