पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४०३

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चतुर्थ सर्ग आँधी, वह ज्योति आशकाओ की भय, अविश्वास के बादल, कम्पित करते रहते है स्मृति-दीप-शिखा को प्रतिपल, दृढ श्रद्धाचल से रक्षित अखड जगी है, बुझने की कभी नही वह, लौ ऐसी भली लगी है, योगिनी सतत जपती है अपने योगी की माला, ऑसू से बुझा रही है वह अन्तरतर की ज्वाला । ६२ लुट गई ऊम्मिला पल मे देकर अपना जीवन-धन, पिय के विछोह की लपटे आई यज्ञ-हुताशन, विरहानल मय मरुथल में खिल उठी तपस्या-कलियाँ, हिय धडकन बनी सुमरनी, सस्मृति बन गई अंगुलियों, बन-वास-अवधि के दिन छिन, मनके बन गए बड़े से, हो गए प्राण कुछ आकुल, कुछ-कुछ उखडे-उखडे से । बन