पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४०५

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चतुर्थ सर्ग सस्मरण-सघन-धन छाए, नयनो से बरस पडे ये, मन-नभ मे नि श्वासो के झझानिल-से झगडे ये मानस दिगन्त मे उट्ठी,- स्मृति-मेघ-मालिका गहरी, उठ चली टीस बिजली-सी आहो मिस धन-ध्वनि गहरी अभावृत, तरणि-किरण-सी चमकी अाशा हृदयाकाश मे तडप कर नित मौन पपीहे चहके । 1 रह-रह के सर्वस्व लुटा सुख-सस्मृति-मय वह जीवन बन गया क्षणिक सुख-सपना, रह गया ऊम्मिला के डिग बस लखन नाम का जपना; अपना मानवता के चरणो मे, अम्मिला खो गई सहसा, १, दुख के धन आवरणो में । पिय विरह जनित नित दुख से जीवन बन गया उलहना, जीवन ध्येय बना है यह विषय वेदना सहना । ३६१