पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४०६

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ऊम्मिला अपने पीतम की छबि का नयनो मे बिम्ब उतारे, बैठी है लक्ष्मण-रानी प्रतिबिम्ब हिए मे धारे, यह ऑख-मिचौनी-क्रीडा, यह अपलक झलक सुहावन, वेदना-दानिनी बन के वरसाती है नित सावन उठ-उठ कर थहराती है ये मेघावलियाँ काली, बन गई निमिष मे सहसा, उजियाली भी अधियाली । १८ दुख के सस्मरणो गरबीले मेधा बरसे, जितने बरसे उतने ही ये प्राण-पपीहे तरसे, मूसलाधार धाराएँ उठ धाई मन-अम्बर से, वेदना उठ जगती के अन्तरतर से, आँधी, पानी, पकिल थल, जीवन मे मिले घनेरे, दुख-सार भूत बन आए जीवन के सॉझ-सबेरे आई ३६२