पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४०८

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ऊम्मिला १०१ दिन थक कर मुरझ गया है सन्ध्या के पल-अचल में, श्रम श्रान्ति व्यथा उमडी है खग वृन्दो के कल-कल मे, गोधूली की वेला में धूमिल-सा हुआ दिगम्बर, छाया मे कॅप उठी वेदना थर-थर, डर-डर कर धर पग धीरे अधियाला आया, लुट चला उजेला छिन मे बढ़ चली तिमिर की छाया । औदास्य हृदय नभ में सस्मरण-विहगम आए हिय-नीड-निलय मे अपने, कलरव से मानस-अम्बर- लग गया निमिष मे कॅपने , क्या दरद पराया जाने यह बाझ साझ अलबेली ? सुख-स्मृति बटोर लाती है नित यह बेदरद अकेली मधुमय सँजोग की स्मृतियाँ हिय की गुप-चुप प्रिय बतियों, सन्ध्या बॉधे अचल मे लाती है कई सुरतियों । B8४