पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४०९

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चतुर्थ सर्ग १०३ वे कई मधुर घटिकाएँ कल्लोल भरी लहराती, सन्ध्या के सूने क्षण मे आ जाती है मदमाती, अभिशाप रूप बन जाते सुख क सस्मरण दुखदाई हो जाते है ये अति दुलार के पाले बैठी है सॉस-बहू ये सन्ध्या के नीरब क्षण मे, जीवन की कसक-कहानी उही है उनके मन में । निराले, 3 करुणा की इन छवियो के, कल्पने, सान्ध्य-दर्शन कर, चुपके तू, अरी, चली आ, उनकी पद-रज शिर पर धर, चिर-विरह वेदना की यो उलझी हुई कहानी, फिर कभी उसे सुलझाना, सुन अरी, कल्पने रानी 1 दर्शन कर, दीक्षित हो जा तू करुण-रहस्य अगम मे, तब गाना विरह कथानक कपित स्वर कोमलतम मे ।