पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४१६

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जम्मिला अब वे छिन सपने भए, गए सुदूर पराय, निपट निराशा-जलधि रह्यो हृदय उतराय । २० विपिन बिहारी हौं नटी, तुम नट सुघर प्रवीन, मो बिन कैसे होउगे, रग-मच-रस-लीन ? २१ सूत्रधार तुम, सुनट तुम, तुम नाटक के प्रान, हौ प्रवीन नट नागरी, रस-भावना-प्रधान । २२ अहो तनिक ठाढे रहो, झटकि बॉह जनि जाहु, निभृत नृत्य शाला भई, आहु, सजन, गृह आहु । अनेक, जीवन नाटक के परे, रीते अक आवहु खेलहु तुम इतै, छिटकावहु स्मिति-रेख । २४ विकल प्राण, आकुल नयन, व्याकुल मन, तन छीन, बुद्धि चकित, हिय दुख-निरत, 'अह' सुरत-रस-लीन । ४०२