पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४१८

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मो अँगना फुहिया बरसि, सुइयाँ-सी चुभि जॉय, घन-छहिया, बहिया पकरि, लाई विरह बुलाय । धोए-धोए-से मधन, द्रुम पल्लवन्हि निहारि, कसक, सिसक मिस बहि चली, नयन उघारि-उधारि । धन आए, छाई घटा, हहरि गिरी जल धार, घहरि-वहरि गरजी विया, हिय बिच बारम्बार । छाय रह्यो हिय गगन मे, घटा टोप घनघोर, चमकावहु स्मित-किरण निज, इत अहो चितचोर । ३५ भई भली, सगिनि मिली, यह करुणा गुणहीन, चलै साधना-पथ, पथिक, हौ, तुम, करुणा तीन । मन डोल्यो-डोल्यो फिरै, पावस मे दिन रैन, कहा कही याकी कथा पावत नैक न चैन । ? ४०४