पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४१९

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पचम सर्ग जल वरसत, कसकत हृदय, भारी-भारी होय, वग्मावत मद रग कोउ, धन चूनरी निचोय । ३८ गिरन परत उठि-उठि चलन, गृधन बीच सनेह, ढि रही इत-उन तुम्हे, हिय-वेदना प्रदेह । जलधारा मिस दुरि पर्यो, नभ-करुणा-उद्रेक, बुद्-बुद् मिस भू वक्ष पे छाले परे अनेक । ४० जल भीनी द्रुम-वल्लरी, झुमि-झूमि इठलाति, अश्रु-मित नित हरिन ज्यो, बिया-बेलि लहर नि । ४१ सिहरि-सिहरि रहि जात है, वायु-विडोलित पात, ज्यो उसॉस ते कैंपत है रोम-रोम सब गात । ४२ पवन-बीजना लगत ही, झरत विटप-जल-बिन्दु, अाह उठन ही झरत ज्यो, नयन बिन्दु मय मिन्त्रु । ४०५