पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४२४

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ऊम्मिला ६७ अँधियारी अध रात की, कपि-कपि अम्बर बीच,- सीकर-कण मिस, वेदना रही हिये बिच सीच । नीद निगोडी छॉडि के दृग को निझर देस, चली गई वा पार, पिय, कहूँ दूर परदेश । घन अँधियारो, रात की निपट बलैयाँ लेत, ज्यो कि-झुकि कोउ नेह-धन, हृदय उडेले देत । ७० निशा बनू हौ, तुम बनौ निबिड तिमिर घन, प्रान, झुकि छावहु कै के, गह्न, गहर, गभीर, महान । नभ मडल को चक्र यह चल्यो जात दिन रैन, गति मय यह ब्रह्माड सब, नैकु न पावन चैन । ७२ बनाय, तारक मडल मालिका, गूंथी ईश फेरि रहे छिन-छिन वहै, हिये सिहाय-सिहाय । ४१०