पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४२५

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पचम सर्ग ७३ अतल, वितल, पाताल लौ, सकल खमडल लोक, ढूंढि रहे, पिय ना मिले, मिट्यो न यि को शोक । ७४ विचलित हिय, विगलित नयन, दलित भाव सुकुमार, खड-खड अस्तित्व को करत वियोग-कुठार । ७५ निशि के सूने छिनन मे हिय मे खुट-खुट होय, लघु आशा घन तिमिर मे, ठाढी-ठाढी रोय । ७६ सूनेपन में करि उठत, यह हिय हा-हाकार, तडपि-तडपि रहि जाति है, दरस-परस-मनुहार । ७७ हार कहो या कौ, कहौ अथवा हिय की जीत, जो निबहतु है हृदय यह, निशि-दिन प्रीति अतीत ? ७८ रीति अनौखी प्रीति की, जीत समझिये हार, हार भरे सपनेन मे, करिये विजय-विचार । ४११