पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४२७

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पचम सर्ग ५५ सजन, तनिक-सी गगरिया, क्यो खाली रहि जाय ? नक निकट प्रावहु इतै, भरहू याहि मुसिक्याय । या पनघट के सुनट तुम, या पनघट के राज, खेलि खेल अोझल भए क्यो पनघट ते आजु ? ८७ मम नागरिया गगरिया, भई आज निस्तब्ध, काकरिया मारहु, करहु झन भकृतिमय शब्द 1 विहंसि कॉकरी मारहू, भरहु गागरी आय, प्यासी मेरी कलसिया, लटकि रही निरुपाय । पनिहारिनि एकाकिनी, हो प्यासी, सतप्त, रोम-रोम प्यासौ, रहयो यह अस्तित्व अतृप्त । बडे दिनन तै, जतन तै, बडी दूर ते, नाथ, हौ प्रावतु हौ घट लिए, या को करहु सनाथ । ४१३