पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३

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२५ यो कह कर ऊस्मिला ध्यान में मन्ना बैट गई जब,- सारी बाल-चपलता मानो हो एकत्र गई तब , देने लगी चुनौती मानो धीर भावनाप्रो को,-- ध्यानी के उन्नत ललाट की सहज सात्वनाप्रो को। ? झकझोरने लगी उसको हंस-हॅस सीता सुकुमारी, और, अचल-सी रही कनिष्ठा धीरा जनक दुलारी "सोता जीजी,"यो आँखो को मूंदे-मदे बोली- "कथा कह रही हो कि खेलती हो तुम मुझ से होली।" २७ चुटकी से उसके गालो को सीता तब थामा, वचनावलियाँ उच्चारित की उस ने ये अभिरामा, "खोलो अॉख ऊम्मिले, तुम पर जाऊँ मै बलिहारी सन्ध्या करने को तो मैने कहा नही था, प्यारी ? २८ एक कहानी के बदले यह सन्ध्या क्यो करती हो ? ऐ, री ढीठ, क्यो न मम बाते निज मन में धरती हो सुन सीता के बचन ऊम्मिला ने निज अाँखे खोली, मानो छोटी-सी हरिणी ने खोली ऑखे भोली । २६ बड़े चाव से सीता उस से बोली प्यार पगी-सी, मानो रह-रह कर होती है जागृत लगन लगी सी, "बहन ऊम्मिले, चलो खेलने चले अन्तरुपवन मे, माँ के लिए फूल तोडेगी हम तुम उस उपवन मे ।' 20