पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३०

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अम्मिला मम सनेह-नैया परी, विरह-समुद्र मझार, छिन-छिन में यह बढि रह्यौ, उग्न पवन सचार । आय तनिक देखहु इते, कैसो हाल बिहाल डग मग, डग मग @ रही या नौका की चाल । बन्ध-हीन, गुन गलित, है सडी लकरिया चार, का जानौ का है गए, सुदृढ डाड पतवार ? उफनि रह्यौ है सिन्धु यह, विकट लहर की मार, फेनन के मिस उमडि कै, आयो सिन्धु विकार । १०७ टेर गगन मे उठि रही मेरी बारम्बार, भनक कान क्यो ना परी, ओ मेरे सरकार ? १०८ तुम वन-विचरण करि रहे निपट अकेले नाथ, बही जाति है यह इतै, मेरी नाव अनाथ । ४१६