पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३२

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ऊम्मिला नित सशय को उठि रह्यो, उभरि-उभरि तूफान, प्रकट्यो सर्व विनाश को, फेनिल क्रुद्ध विधान । गरजि-गरजि घिरि-घिरि, घुमडि घटाटोप' धन आय, अम्बर में ऊधम करत, खर बिजुरी चमकाय । ११७ दिग्भ्रम मे मेरी तरी, परी निरी असहाय, याहि उबारहु करि कृपा, हे मेरे रस राय | ११८ करहु तरगित शून्य मे, निज वशी की तान, इक छिन में मिटि जाइगो, मन-दिग्भ्नम-अज्ञान । ११६ अथवा तुम करिके कृपा, करहु धनुष टकार, भय भागै, पहुंचे तरी सागर के वा पार 1 १२० लखन-नाम मम दीप लघु, लखन-शरण मम पास, लखन-चरणं मम भक्ति दृढ, लखन-नेह विश्वास. ।